मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

FRUSTRATION-खाली शीर्षक इंग्लिश है


अब चुप हूँ तो चुप ही रह जाने दो
तपिश ये मुझे खुद ही सह जाने दो
तुम्हारी शिकायतें,तुम्हारे सवाल
तुम्हारी लग्जीशे,तुम्हीरे मलाल
मेरी बेचैनी मेरी तङप
कङी धुप लंबी सङक
मेरा भरोसा तुम्हारा अविश्वास
दिन बंजर रातें उदास
शहर में मेट्रौ, मेट्रों में लोग
जलती नसे है चढता है रोग
62 की ऑटो, ऑटो में धुल
बाते तुम्हारी सारी फिजूल
मेरी नियत और तेरे सवाल
जिस्म का मसला,मसले का बवाल
रोज का झगङा मेरी सफाई
डीजल की गंध और ऊबकाई
तुम्हारी बातें, बातो का असर
भरता ही जाता है भीतर जहर
कितना है उथला अपना संबध
संयम के सारे टुटे तटबंध
अंतस का हर एक शै जल रहा है
खत्म हो तेरा खेल जो चल रहा है
है उपर से नीचे तक तेजाब मुझमें
कि आया कहाँ से  है ये आग मुझमें
जल जायेगी तू अगर बोलता हूँ
उगलूंगा शोले जो लब खोलता हूँ
जो चुप हूँ तो चुप ही रह जाने दो
तपिश ये मुझे खुद ही सह जाने दो

  Ravish kumar (ndtv waale)  Quasba naam se blog likhte hai. Unka ye lekh padha to socha aap sab se v sajha kiya jaye...padhiye maza aayega....neeche ravish ke blog ka link v hai

 

सिनेमा का सुहागरात

पता नहीं कहाँ से ख़ुराफ़ात सूझी कि सुहागरात के फ़िल्मी दृश्यों पर लिखने का मन करने लगा । जानना चाहता हूँ कि हिन्दी सिनेमा में सुहागरात का सीन कैसे प्रवेश करता है । शुरू के सुहागरात के दृश्य किस तरह के होते होंगे । जैसे ही नायक दरवाज़ा बंद करता है एक नई दुनिया दर्शकों के सामने नुमायां होने लगती है । शादी के बाद कमरे में प्रवेश करने का सीन हमेशा से पुरुषों के लिहाज़ से रचा गया । उसका प्रवेश करना एक किस्म का एकाधिकार है । ब्याह कर लाई गई दुल्हन पलंग पर शिकार की तरह बैठी होती है । वो सिर्फ एक हासिल है । सुहागरात के सीन में एक पुरुष दर्शक किस एकाधिकार से प्रवेश करता है और एक महिला दर्शक कैसे प्रवेश करती है मालूम नहीं । इसका किसी ने अध्ययन किया हो तो बताइयेगा । हिन्दी फ़िल्मों ने हमीमून भले ही पश्चिम से चुराया है मगर सुहागरात मौलिक आइडिया लगता है । सुहागरात के दृश्यों ने आम वैवाहिक जीवन की 'पहली रात' को कितना रोमांटिक और ख़ौफ़नाक बनाया इसका विश्लेषण होना बाक़ी है । अव्वल तो आप और हम सब जानते हैं मगर हमने कभी इसे सार्वजनिक नहीं किया है ।

जैसे सुहागरात के सीन में दूध का ग्लास कब प्रवेश करता है । दूध का ग्लास सिर्फ मर्द के लिए क्यों होता है और औरत क्यों नहीं पीती है। दूध का ग्लास कई रूपों में आता है । साज़िश, ज़हर, शरारत और भय के रूप में । ननद या सौतेली सास जब दूध का ग्लास लेकर आती है तो बैकग्राउंड म्यूज़िक 'पहली रात' को आख़िरी सीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता । दूध के ग्लास का गिर जाना एक किस्म का इंकार है । सिनेमा में  प्रेम से ज्यादा हवस के सुहागरात दिखाये गए होंगे । बल्कि कब प्रेम से हवस में बदला ।उसी तरह से दूल्हे के आने का अंदाज़ भी सुहागरात का पेटेंट सीन है । शराब के नशे में , पागल दूल्हा, बेवकूफ दूल्हा , बूढ़ा दूल्हा आदि आदि के प्रवेश करने का अंदाज़ भी खास तरह से गढ़ा गया होगआ । नशे और उम्र के कारण  लड़खड़ाने के बाद भी पुरुष का एकाधिकार बना रहता है ।

सुहागरात के सीन में दिखाये गए दूल्हा दुल्हन के प्रकार की भी सूची बननी चाहिए । हिन्दी सिनेमा के निर्देशकों ने सुहागरात को भयावह भी बनाय है । भ्रष्टाचार फ़िल्म में शिल्पा शिरोडकर पर फ़िल्माया गया है । यू ट्यूब में जैसे ही सुहागरात टाइप किया पता नहीं यही एक दृश्य क्यों बार बार उभरता रहा । यू ट्यूब में अपलोड करने वाले ने इस दृश्य को किस नज़र से देखा होगा बार बार सोचता रहा । खलनायक की अतिमर्दानगी विचित्र है । दूल्हे की नपुंसकता का सीन भी एकाधिकार के फ़्रेम में शूट हुआ है । दुल्हन को छूने और साथ में अलग तरह की संगीत रचना भी सुहागराती सीन है । दूल्हा हमेशा या कई बार दोस्तों के पी पा के बाद ही कमरे में आता है । सिर्फ । दुल्हन ही कमरे में पहले से बैठी रहती है ।

सुहागरात की बात हो और सेज़ की न हो ठीक नहीं लगेगा । सेज़ मतलब एक प्रकार का स्टेज समझिये । जहां दोनों का ' सीन' परफार्म होता है । 'गजरे के सफ़ेद फूलों से लदा पलंग । आख़िरी सीन में फूलों की लड़ियों का टूटना, दुल्हे की कलाई और दुल्हन के जूड़े में गजरा । सेज़ को लेकर गाने भी खूब लिखे गए है । बेला चमेली का सेज़ बिछाया सोवै गोरी का यार बलम तरसे रंग बरसे । सुहागरात में सेज़ कैसे बदलता है यह भी देखना है । कैमरा कैसे दुल्हन के पाँव का क्लोज़ अप करता है, पायल कैसे रगड़ खाकर टूटती है । इन सबको स्त्री को अधीन बनान वाले  दृश्यों और प्रसंगों को रूप में देखा जाना चाहिए । यह एक किस्म का भयानक कंस्ट्रक्ट है जिसे रोमांटिक समझ कर लोग आम जीवन में उतारते हैं । गाँव गाँव में सुहागरात के सीन की असली नक़ल होती रही है । सबकी निगाहों से बचाकर फूल लाये जाते हैं । दरवाज़ा बंद कर भीतर ही भीतर कमरे को वैसे ही सजा दिया जाता है जैसे फ़िल्मों में दिखाया जा चुका होता है । आपमें से कितनों के जीवन में सिनेमा के यह दृश्य रचें गए, इसका वृतांत इतना गुप्त क्यों हैं । क्या दुल्हन वैसे ही बिस्तर पर घूँघट में बैठी थी जैसे सिनेमा ने दिखाया था । कितना कुछ है जानने को ।

जैसे ही मैंने यू ट्यूब पर सुहागरात टाइप किया सुहागरात के अनगिनत मल़याली दृश्यों से घिर गया । लगता है मल़याली फ़िल्मों में सुहागरात ख़ासा कमाऊ सीन है । पर सभी फ़िल्मों के नहीं थे । पर कई में मल़याली 'हाट बेब' के साथ सुहागरात टाइप कुछ लिखा देखा । आप ज़्यादा कल्पना न करें इसे पढ़ते हुए । मैंने इन दृश्यों को चला कर नहीं देखा है । डर्टी माइंड ! पर मैं गंभीर हूँ । सिनेमा में सुहागरात पर लिखना चाहता हूँ । कुछ फ़िल्मों के नाम और असली जीवन के प्रसंगों की चर्चा करें तो अच्छा रहेगा । हाल की फ़िल्मों में सुहागरात के सीन कम हो गए हैं । कई फ़िल्में देखी हैं पर सुहागरात का कोई सीन याद नहीं आ रहा । शायद यह सीन अब पकाऊ हो गया है इसीलिए निर्देशकों को इसमें अब वो पहली रात वाली बात नज़र नहीं आती या फिर दुल्हन का किरदार ही स्वतंत्र हो गया है ।
   Ladkiyan.....
लडकिया स्कुल जा रही है अपनी अपनी साइकिलो पर
टूटी पगडंडियों  पर लडखडाती साईकिल अपनी दिशा खोज ही लेती है 
ये लडकिया सुबह के खाने में नमक की तरह मिल कर आई  है 
शाम के भोजन में इन्हें लकडियो की जगह जलना है 
मगर फिर भी अपनी रसोई के स्याह अंधेरो से बहार निकली ये लडकिया 
दिन की धुप में अपने जिस्म से अँधेरे नोच कर फेकती जा रही है 
साईकिल की घंटियों का शोर इनके जीवन के कोलाहल पर बीस पड़ रहा है 
हवा,इनके आँखों के कोरो पर चिपकी आसू की बूंदे पोछती जा रही है 
ये लडकिया  हसना सीख रही है अपनी अपनी साइकिलो पर 
ये लडकिया  जब मुसकुराती  है मोतियों की माला सी सज जाती है 
सींखचों में बंधे पशु को देख ये लडकिया अपनी गर्दन सहलाती है 
जल्द ही इन बालाओ  को परे धकेल लडकिया आगे बढ़ जाती है  
बिखरे मोतियों सी मुस्कान वाली लडकिया स्कुल के पायेदान चढ़ जाती है 
लडकिया परिचित है इस बात से की उनकी स्वतंत्रता  के ये ही एक आध बरस शेष है 
स्कुल के रस्ते पर अपनी साइकिलो पे ये लडकिय स्वतंत्र है 
ये आखरी बरस है इन मानवियों के जीवन के 
जल्द ही इन्हें बेमौत मरना होगा 
लडकियां बंद जाएँगी सींखचो में पशुवो की भाती  किसी खूटे से 
उसी के आस पास इन्हें ताउम्र चरना होगा 
बस तब तक लडकिया स्कुल जा रही है अपनी अपनी साइकिलो पर 



                                                  तुम हँसो 
अच्छा लगता है जब झुर्रियो से भरे तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियो को खेलते देखता हु 
अच्छा लगता है  क्योंकि उमर भर मैं बस देखता ही रह गया 
उम्र को घटते हुए झुर्रियों को बढ़ाते हुए 
तुम अपनी इक्शयो का घर्भ्पात करती रही मुस्कुराती रही 
इस आवरण में जाने क्या क्या छुपाती रही 
कुछ भी तो न कर सका मैं तुम्हारे लिए 
तुम्हारे साधारण से सपने भी अधूरे अधलिखे से रह गए 
हमारे रिश्ते में मेरी जगह भी मैं था और तुम्हारी जगह भी 
तुम घुलती पिघलती विलुप्त सी हो गयी 
इस घुलने मिलने मिट जाने की प्रक्रिया में ही
तुम्हारे स्त्रीत्व का उद्बोधन था 
और इसका सतत प्रोत्साहन ही मेरे पुरुसर्थ का संबोधन था 
आज जब हम जिन्दगी से खली गिलास हो चुके है 
छलकने बहकने के भय से मुक्त है 
मैं खुद को वादाखिलाफी का दोषी पता हु 
तुम्हारी आँखे सपनो से बंज़र हो गयी 
तुम्हारी मुस्कान फूल से पत्थर हो गयी 
इसलिए भी अच्छा लगता है जब झुर्रियों से भरे निस्तेज चेहरे पर 
रह रह कर उभर आती है हसी 

आदर्श शुक्ल 

(ये कविता आगे भी है समय की कमी के कारन पूरा नहीं लिख पया )
               KRANTI
क्रांति के सारे नारे आउट डेटेड हो गये है
 आज के सारे युवा तुर्क फ्रस्ट्रेटेड  हो गए है।

जुल्म से लड़ने में कौन करे जाया जवानी 
मुल्क के लौंडे सरे अब कमिटेड हो गये है 

देश क्या, समाज क्या, इतिहास का संत्रास क्या 
उड़ चूका भेजे से सब कुछ।
डाटा सब डिक्रांति के सरे नारे ,आउट डेटेड  हो गए है 
लिटेड हो गये है।

एक कलम के साथ हम लडे किस किस से कहिये 
नेता,उचक्के ,खबरची,बनिए 
सब रिलेटेड हो गए है।।
मैं एक कमज़ोर आदमी हूँ
एक ख्वाब देख लू तो फूलने लगती हैं छाती लड़खड़ा कर गिर देता हु ख्वाब 
त्तुम एक मजबूत औरत हो,जिसने मेरी भुरभुरी पसलियों के लिए 
लोहे के कपडे सिल दिए 
मेरे कापते कंठ में बांध दिए तुमने हौसले के गीत 
मुझे सीखाया कि छाती घुटनों से टाँके बिना चलना संभव हैं 
आज तुम जब ख्वाब हो मेरा ,चाहता हूँ  ताबीर
तो खींचती हो कदम पीछे 
 देखो मुझे,मेरे पाँव जमीन पर है स्थिर 
मेरी रीढ़ सीधी है,मैं पलायन से मुकर चूका हूँ 

न हो यू लाचार असहाय 
प्लीज़ ..मैं तुम्हे खंडित नहीं देख सकता 
सुनो।।।आस्था का टूट जाना  अच्छा  नहीं होता।।।

रविवार, 10 फ़रवरी 2013


पुण्य प्रसून वाजपेयी का यह लेख पत्रकारिता के छात्रों के लिए जरूरी जान पङा तो साझा कर रहा हूँ।
शोमा दास की उम्र सिर्फ 25 साल की है। पत्रकारिता का पहला पाठ ही कुछ ऐसा पढ़ने को मिला कि हत्या करने का आरोप उसके खिलाफ दर्ज हो गया। हत्या करने का आरोप जिस शख्स ने लगाया संयोग से उसी के तेवरों को देखकर और उसी के आंदोलन को कवर करने वाले पत्रकारों को देखकर ही शोमा ने पत्रकारिता में आने की सोची। या कहें न्यूज चैनल में बतौर रिपोर्टर बनकर कुछ नायाब पत्रकारिता की सोच शोमा ने पाल रखी थी। बंगाल के आंदोलनो को बेहद करीब से देखने-भोगने वाले परिवार की शोमा को जब बंगला न्यूज चैनल में नौकरी मिली तो समूचे घर में खुशी थी कि शोमा जो सोचती है वह अब करेगी। बंगला न्यूज चैनल 24 घंटा की सबसे जूनियर रिपोर्टर शोमा को नौकरी करते वक्त रिपोर्टिग का कोई मौका भी मिलता तो वह रात में कहीं कोई सड़क दुर्घटना या फिर किसी आपराधिक खबर को कवर करने भर का। जूनियर होने की वजह से रात की ड्यूटी लगती और रात को खबर कवर करने से ज्यादा खबर के इंतजार में ही वक्त बीतता।

13 अक्तूबर की रात भी खबर कवर करने के इंतजार में ही शोमा आफिस में बैठी थी। लेकिन अचानक शिफ्ट इंचार्ज ने कहा ममता बनर्जी को देख आओ। बुद्धिजीवियों की एक बैठक में ममता पहुची हैं। शोमा कैमरा टीम के साथ निकल गयी। कवर करने पहुची तो उसे गेट पर ही रोक दिया गया। ममता बनर्जी की हर सभा में गीत गाने वाली डोला सेन ने शोमा दास से कहा 24 घंटा बुद्धदेव के बाप का चैनल है इसलिये ममता से वह मिल नहीं सकती। लोकिन शोमा को लगा कोई बाईट मिल जाये तो उसकी पत्रकारिता की भी शुरुआत हो जाये। खासकर बुद्धिजीवियों की बैठक में अल्ट्रा लेफ्ट विचारधारा के लोगों की मौजूदगी से शोमा का उत्साह और बढ़ा।

क्योंकि घर में अपनी माँ-पिताजी से अक्सर उसने नक्सलबाड़ी के दौर के किस्से सुने थे। उसे ममता में आंदोलन नजर आता। इसलिये शोमा को लगा कि एक बार ममता दीदी सामने आ जाये तो वह इस मुद्दे पर बाइट तो जरुर ले लेगी। लेकिन गेट पर ममता का इंतजार कर रही शोमा दास का खड़ा रहना भी तृणमूल के कार्यकर्ताओं को इतना बुरा लगा कि पहले धकेला फिर डोला सेन ने ही कहा - तुम्हारा रेप करा देगें, किसी को पता भी नहीं चलेगा। भागो यहाँ से। लेकिन शोमा को लगा शायदा ममता बनर्जी को यह सब पता नहीं है, इसलिये वह ममता की बाईट का इंतजार कर खड़ी रही और ममता जब निकली तो उत्साह में शोमा ने भी अपनी ऑफिस की गाड़ी को भी ममता के कैनवाय के पिछे चलने को कहा। लेकिन कुछ फर्लांग बाद ही तृणमूल के कार्यकर्ताओं ने गाड़ी रोकी और शोमा पर ममता की हत्या का आरोप दर्ज कराते हुये पुलिस के हवाले कर दिया। यह सब ममता बनर्जी की जानकारी और केन्द्र में तृणमूल के राज्य-मंत्री मुकुल राय की मौजूदगी में हुआ। शोमा को जब पुलिस ने थाने में बैठा कर पूछताछ में बताया कि ममता बनर्जी का कहना है कि तुम उनकी हत्या करना चाहती थीं तो शोमा के पांव तले जमीन खिसक गयी। उसने तत्काल अपने ऑफिस को इसकी जानकारी थी। लेकिन ममता बनर्जी ऐसा कैसे सोच भी सकती हैं, यह उसे अभी भी समझ नहीं आ रहा है।

लेकिन इसका दूसरा अध्याय 14 अक्टूबर को तृणमूल भवन में हुआ। जहाँ आकाश चैनल की कोमलिका ममता बनर्जी की प्रेस कान्फ्रेन्स कवर करने पहुची। कोमलिका मान्यता प्राप्त पत्रकार है। लेकिन इस सभा में तृणमूल के निशाने पर कोमलिका आ गयी। कोमलिका को तृणमूल भवन के बाहरी बरामदे में ही रोक दिया गया। कहा गया आकाश न्यूज चैनल सीपीएम से जुड़ा है, इसलिये प्रेस कान्फ्रेन्स कवर करने की इजाजत नहीं है। कोमलिका को भी झटका लगा, क्योंकि कोमलिका वही पत्रकार है जिसने नंदीग्राम के दौर में समय न्यूज चैनल में रहते हुये हर उस खबर से दुनिया को वाकिफ कराया था, जब सीपीएम का कैडर नंदीग्राम में नंगा नाच कर रहा था। जब सीपीएम के कैडर ने नंदीग्राम को चारों तरफ से बंद कर दिया था जिससे कोई पत्रकार अंदर ना घुस सके, तब भी कोमलिका और उसकी उस दौर की वरिष्ठ सहयोगी सादिया ने नंदीग्राम में घुस कर बलात्कार पीड़ितों से लेकर हर उस परिवार की कहानी को कैमरे में कैद किया जिसके सामने आने के बाद बंगाल के राज्यपाल ने सीपीएम को कटघरे में खड़ा कर दिया था। उसी दौर में ममता बनर्जी किसी नायक की भूमिका में थीं।

कोमलिका-सादिया की रिपोर्टिग का ही असर था कि सार्वजनिक मंचो से एक तरफ सीपीएम कहने लगी कि समय न्यूज चैनल जानबूझ कर सीपीएम के खिलाफ काम कर रहा है, तो दूसरी तरफ ममता दिल्ली आयीं तो इंटरव्यू के लिये वक्त मांगने पर बिना हिचक आधे घंटे तक लाइव शो में ममता मेरे ही साथ यह कह कर बैठीं कि आपकी रिपोर्टर बंगाल में अच्छा काम कर रही है। कोमलिका को लेकर ममता बनर्जी की ममता इतनी ज्यादा थी कि ममता ने कोमलिका को सलवार कमीज तक भेंट की और साल भर पहले जब कोमलिका ने शादी की तो ममता इस बात पर कोमलिका से रुठीं कि उसने शादी में उसे क्यों नहीं आमंत्रित किया।

लेकिन 14 अक्टूबर को इसी कोमलिका को समझ नहीं आया कि वह पत्रकार है और अपना काम करने के लिये प्रेस कान्फ्रेन्स कवर करने पहुँची है, तो उसे कोई यह कह कर कैसे रोक सकता है कि वह जिस चैनल में काम करती है, वह सीपीएम से प्रभावित है। नंदीग्राम और सिंगूर के आंदोलन के दौर में कोमलिका ने जो भी रिपोर्टिंग की, कभी सीपीएम ने किसी न्यूज चैनल को यह कह नहीं रोका कि आप हमारे खिलाफ हैं, आपको कवर करने नहीं दिया जायेगा। कोमलिका के पिता रितविक घटक के साथ फिल्म बनाने में काम कर चुके हैं और नक्सलबाड़ी के उस दौर को ना सिर्फ बारीकी से महसूस किया है, बल्कि झेला भी जिसके बाद कांग्रेस का पतन बंगाल में हुआ और सीपीएम सत्ता पर काबिज हुई। नंदीग्राम से लालगढ़ तक के दौरान सीपीएम की कार्यशैली को लेकर शोमा दास और कोमलिका के माता-पिता की पीढ़ी में यह बहस गहरायी कि क्या वाकई ममता सीपीएम का विकल्प बनेगी और अक्सर कोमलिका ने कहा - लोगों को सीपीएम से गुस्सा है, इसका लाभ ममता को मिल रहा है।

लेकिन नया सवाल है कि अब ममता से भी गुस्सा है तो किस तानाशाही को शोमा या कोमलिका पंसद करें। यह संकट बंगाल के सामने भी है और पत्रकारों के सामने भी। क्योंकि अगर दोनों नापंसद हैं, तो वैकल्पिक धारा की लीक तलवार की नोंक पर चलने के समान है। तो सवाल है, पत्रकारिता कैसे करे।